अभी सरकार में कौन है और पहले किसकी सत्ता थी, हमें इससे मतलब नहीं... राष्ट्रपति-राज्यपाल केस में सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के रेफरेंस पर सुनवाई में कहा कि उसका निर्णय सत्ता में रहे राजनीतिक दलों से प्रभावित नहीं होगा. सीजेआई गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की संविधान पीठ मामले की सुनवाई कर रही है.
नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों की शक्तियों से संबंधित राष्ट्रपति के रेफरेंस पर उसका निर्णय इस बात से प्रभावित नहीं होगा कि वर्तमान में कौन-सा राजनीतिक दल सत्ता में है या पहले सत्ता में था. भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर की संविधान पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत शीर्ष अदालत को दिए गए रेफरेंस पर सुनवाई कर रही थी.
इस रेफरेंस में सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल के उस फैसले पर सवाल उठाया गया है जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए 90 दिनों की समय-सीमा निर्धारित की गई थी. बार एंड बेंच में प्रकाशित खबर के मुताबिक, सीजेआई ने सुनवाई के दौरान कहा, “हम इस आधार पर मामले का फैसला नहीं करने जा रहे हैं कि कौन सी राजनीतिक व्यवस्था सत्ता में है या थी.”
सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी उस समय की जब तमिलनाडु राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के बीच उन मामलों का विवरण प्रस्तुत करने को लेकर बहस हो गई जहां राज्यपालों ने विधेयकों पर अपनी सहमति नहीं दी थी.
सिंघवी ने कहा, “मेरे पास तमिलनाडु और केरल का एक चार्ट है…” इस स्तर पर, सॉलिसिटर जनरल मेहता ने गुण-दोष के आधार पर प्रस्तुतीकरण का विरोध किया और कहा कि उनके पास अन्य राज्यों के चार्ट हैं. उन्होंने कहा, “अगर वह गंदा रास्ता अपनाना चाहते हैं, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. मैं उस रास्ते पर भी चलने को तैयार हूं, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है. यह राष्ट्रपति का रेफरेंस है.” इसके जवाब में सिंघवी ने कहा, ‘मेहता, धमकियां काम नहीं आतीं.”
प्रेसीडेंट रेफरेंस का मामला जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ द्वारा तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल एवं अन्य मामले में 11 अप्रैल को पारित फैसले के बाद आया है. उस निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपालों को एक उचित समय सीमा के भीतर कार्य करना चाहिए और संवैधानिक चुप्पी का इस्तेमाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने के लिए नहीं किया जा सकता.
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शीर्ष अदालत ने कहा कि यद्यपि अनुच्छेद 200 कोई समय सीमा निर्दिष्ट नहीं करता है, फिर भी इसकी व्याख्या इस प्रकार नहीं की जा सकती कि राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर कार्य करने में अनिश्चितकालीन विलंब कर सकें. अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की शक्तियों के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि उनका निर्णय लेना न्यायिक जांच से परे नहीं है और तीन महीने के भीतर होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि उस अवधि से अधिक कोई विलंब होता है, तो कारण दर्ज किए जाने चाहिए और संबंधित राज्य को सूचित किया जाना चाहिए. इस निर्णय के बाद, राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 200 और 201 की निर्णय द्वारा की गई व्याख्या पर चिंता जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय को चौदह प्रश्न भेजे.
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